क्या युद्ध अनिवार्य है? atomic war
युद्ध शक्ति
मनुष्य विकसित रूप माना जाता है उसने अपना चोला बदल दिया है अब और केवल जीव विज्ञान की सूक्ष्म दृष्टि में वह बंदरों का वंशज माना जाता है विद्या बुद्धि में उसने आश्चर्यजनक उन्नति की है भौतिक बल में वह पशु समुदाय से पिछड़ा हुआ है बस। परंतु यह कमी उसने अपने बुद्धि बल से पूरी कर ली है वह घोड़े के समान दौड़ नहीं सकता परंतु उसकी बनाई गई रेल गाड़ियां गाड़ियां उनका बोझा ढोने की शक्ति में घोड़ों को कहीं पीछे छोड़ दिया है मनुष्य उड़ नहीं सकता किंतु उसके बनाए गए वायुयान आकाश में तीव्र गति से चल सकते हैं जल और थल में भी अधिक गति प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य में बाघ और चीते जैसी ताकत नहीं होती किंतु उसकी एक गोली से भयंकर से भयंकर शेर और चीता चारों खाने चित हो जाता है।
मनुष्य ने नैतिक उन्नति भी पर्याप्त रूप में की है उसने विज्ञान के सहारे जीवन के उपकरणों को सुलभ बनाकर संघर्ष को बहुत कम कर दिया है जीवन संग्राम और योग्यता की उपस्थिति विकास के मूल कारण माने गए हैं फिर भी मनुष्य ने इस जीवन संग्राम की घातक ता को बहुत अंशों में दूर कर दिया है। अब जीवन संग्राम व्यापार में ही अधिकांश रूप से संकुचित हो गया है इस संघर्ष की कमी में ही मनुष्य की मनुष्यता है और उसका परम गौरव है उन्नति के रक्तहीन साधन ही मनुष्य को पशु समाज से ऊंचा उठाए हुए हैं इतनी उन्नति होते हुए भी मनुष्य की स्वार्थ परायणता उसको पशु समाज से भी नीचे आ गिरा देती है जब उसके भीतर का पशु जाग जाता है या उठ जाता है तो उसके बुद्धि बल विशिष्ट पंजों और दातों की संहार शक्ति सीमा से बाहर हो जाती है।
क्यों होता है युद्ध
मनुष्य की सामाजिक उन्नति ने व्यक्ति के संघर्ष को बहुत कम कर दिया है व्यक्ति का बदला व्यक्ति नहीं ले पाता उसका बदला समाज लेता है।इस प्रकार आजकल पुराने जमाने की खूनी बेर की परंपरा बहुत काल तक नहीं चलने पाती समाज की सामूहिक शक्ति पारस्परिक विरोध को बहुत अंश तक नियंत्रित रखती है। परंतु जहां जनसमूह और जातियों में संघर्ष होता है वहां किसी विश्वव्यापी शक्ति के अभाव में स्वार्थ का न्याय निर्णय युद्ध के न्यायालय में ही होता है उस समय अस्त्र शस्त्र संचालन बल ही न्याय का मापदंड बन जाता है जिसकी लाठी उसकी भैंस की भांति चरितार्थ होने लगती है। युद्ध व्यक्तियों के संबंध में तो दंडनीय समझा जाता है किंतु जब बहुत किसी राष्ट्र की अधीन संगठित रूप से होता है वीरतवा, देश भक्ति और सभ्यता के भव्य नामों से पुकारा जाने लगता है (everything is is fair in love and war)। अब सभ्यता मी इतनी उन्नति अवश्य हुई है कि कोई केवल साम्राज्य वृद्धि के नाम पर युद्ध नहीं छेड़ता। अब युद्ध सभ्यता और संस्कृति के प्रसार न्याय और शांति की स्थापना आदि जैसे प्रदर्शनीया और भव्य और विशाल उद्देश्य से किए हैं।परंतु उनके भीतर अपने व्यापार की उन्नति और अपनी जाति के लोगों की सुख-समृद्धि का अधखुला उद्देश्य सन्निहित रहता है। कभी-कभी आक्रमणकारी से रक्षा के लिए भी युद्ध छेड़ना पड़ता है।ज़िद्दी की सबसे बड़ी समस्या यही है कि एक शक्तिशाली आक्रमणकारी की स्वार्थी सारे संसार को युद्ध के वत्याचक्र में डाल देती है।
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